Uttrakhand,, chamoli

पहाड़ की शान देखते ही बन पड़ती है। हमारे लिए वे नयी चीज हैं और उनके लिए हमारी आँखें नयी चीज है। नीचे के आदमी और विशेषतया हाता के आदमी, जिनकी दृष्टि के सामने सदा चौपट भूमि रहती है, जिन्‍हें बाग-बगीचे चाहे जितने दिखायी दें और गंगा और यमुना की धारें चाहे जितना मन मोहती रहें, किंतु कभी ऊँचे टीले और गहरी खाइयों, आकाशचुम्‍बी गगन-चोटी और पाताल तक मुँह बाये हुए घाटियों के देखने का अवसर कभी नसीब ही नहीं होता, उनके लिए तो यह सब नया ही नया है। आकाश का सिरा जोड़ने वाले पहाड़ी ‘नोक’ से सफेद लकीर की शक्‍ल में खिंचे हुए आते झरने की उस तेज धारा से लेकर, जो आकर नीचे घाटी में उतर जाने वाले जल-स्रोत का जीवन-अंग बन जाती है और चलने वाले, हारे-थके प्‍यासे पथिक के कलेजे को शीतल और उसके श्रम को हर तरह हरने वाली है, उससे लेकर चारों ओर की, आँखों को रिझाने वाली हरियाली और छोटे-बड़े, टेढ़े-सीधे, तने हुए और झुके हुए अगणित वृक्षों तक, सभी नये ही नये हैं। तने हुए सीधे चीड़ के वृक्षों के अनंत समूह और पंक्तियाँ और एक कोने से निकलकर एकदम किसी विशाल पर्वत की ऊँची चोटी के सामने आ जाना और पार्श्‍व में गहरी, जहाँ तक आँख जाए वहाँ तक का पता न देने वाली, किसी गरी खंदक का निकल पड़ना मन पर एक ऐसे विचित्र रोमांचकारी हर्ष का प्रादुर्भाव करता है कि थोड़ी देर के लिए तो साधारण आदमी तक की सुध-बुध बिसर जाए। पहाड़ी दृश्‍य की निर्जनतायुक्‍त यह भैरव-विशालता शुष्‍क हृदय तक में कविता का स्रोत बहा सकती है! हिमालय की यह प्रारंभिक सूत्रावली ही जब इतनी सुंदर और मनोहारिणी है, तो आगे का कहना ही क्‍या। इस वैभव को देखकर मन सद्प्रेरणाओं से और उल्‍लास से जितनी उड़ान मारता है, पहाड़ी प्रदेश की दशा देखकर उसे उतने ही नीचे भी आना पड़ता है। अकुलाकर कह उठता है कि तुम इतने ऊँचे होते हुए भी आज इतने नीचे, इतने दीन क्‍यों? इतनी दबी हुई गति क्‍यों? यही नहीं, पहाड़ों के निवासियों की दूर तक यही दशा है। कहते हैं, शिमला की पहाड़ियों के लोगों का भी यही हाल है और कश्‍मीर के सुंदरता के टुकड़ों की भी यही बुरी दशा है। सभी दबे हुए हैं। सभी पशु के समान हाँके जा सकते हैं। घोर दरिद्रता ने उन्‍हें पीस ही रखा है, किंतु शताब्दियों की दासता और पराधीनता भी उन्‍हें मनुष्य से कीड़े बनने के लिए विवश किए हुए है। पराधीनता एकांगी नहीं होती। वह चौमुखी बनकर देशों और जातियों को हड़पती है। सब तरफ की पराधीनता ने पहाड़ वालों को पेट के बल रेंगने वाला बना दिया। जब इनकी इस दीन अवस्‍था पर ध्‍यान जाता है और जब ऊँचे उठे हुए पर्वत-शिरों पर उनके वर्तमान वैभव और उनके द्वारा बैठाए जा सकने वाले आतंक पर विचार जाता है, तब मन यही पूछने के लिए विवश होता है कि इस प्रदेश ने अपना शिवाजी क्‍यों नहीं पैदा किया? पश्चिमी घाट के छोटे-छोटे टीलों ने जंगल की आग की तरह बढ़ती हुयी बादशाही सत्‍ता को ठंडा कर देने तथा अपने भीतर अपने आदमियों की सत्‍ता और उनके भारी भविष्‍यत् की रक्षा के लिए, अपने उत्‍साह और शौर्य के पुतले के रूप में शिवाजी के अस्तित्‍व को ऊपर उठा दिया, जिसने किले मारे और मैदान मारे, देश फतह किए और साम्राज्‍य की बुनियाद डाली और यह सब कुछ किया अपने छोटे-छोटे पर्वतों की आड़ में, उनकी सहायता से, उनके दर्रे और वृक्षों की सहायता से। तब फिर, ऐसा ही काम, हिमालय के उच्‍च श्रृंगों की आधारशिला के प्रदेश में क्‍यों नहीं हुआ? यहाँ के ऊँचे श्रृंगों पर से शत्रुओं की सेनाओं के मार्ग रोकने के लिए पत्‍थर के ढोंके क्यों नहीं गिराए गये? क्‍यों नहीं उनका रास्‍ता रोका गया? क्‍यों नहीं उन्‍हें खंदकों में, ऐसे गड्ढों में जो आज तक मुँह बाए पसरे हुए हैं और जिनकी क्षुधा अभी तक नहीं मिटी, उन्‍हें गिराया गया? क्‍यों नहीं उनमें शिवाजी और दुर्गादास, राणा प्रताप और तात्‍या टोपे की तरह वीर पैदा हुए? इन प्रश्‍नों का कोई उत्‍तर नहीं मिलता। पर्वत की ये चोटियाँ इन्‍हें सुनती हैं, गुनती हैं और मूक रहती हैं। राह चलता यात्री यदि उनसे ये प्रश्‍न बारंबार करता है, तो ऊँची चोटियों से उसकी वाणी टकराकर केवल प्रतिध्‍वनि उठाती है और भासित होता है कि मानों वह चिढ़ाती-सी है।