पर्यावरणविद -सुंदरलाल बहुगुणा जी का संपूर्ण जीवन पर्यावरण के लिए समर्पित
पर्यावरण विद सुंदर लाल बहुगुणा का शुक्रवार को कोविड इलाज के दौरान एम्स में निधन हो गया है। 94 वर्षीय बहुगुणा को आठ मई को कोरोना संक्रमण के इलाज के लिए एम्स में भर्ती किया गया था जहां उनकी शुक्रवार को मृत्यु हो गई। उनके निधन से संपूर्ण उत्तराखं डमें शोक की लहर दौड़ पड़ी है। चमोली जिले में भी पर्यावरण क्षेत्र से जुडे़ लोगों ने उनके निधन पर अपने संवेदनाऐं व्यक्त की है। शोक संवेदना व्यक्त करने वालों में गांघी शांति पुरस्कार से सम्मानित पर्यावरणविद पदमश्री चंडी प्रसाद भट्ट, सर्वोदयी कार्यकर्ता मुरारी लाल, मनोज तिवारी, पेड़वाले गुरूजी धनसिंह घरिया, मंगला कोठियाल आदि शामिल थे
सुंदर लाल बहुगुणा का व्यक्तित्व अनूठा था। मैंने कभी गांधी जी का दर्शन नहीं किया था, लेकिन बहुगुणा जी के व्यक्तित्व में ही मैंने गांधी का दर्शन किया। मैं इसकी व्याख्या नहीं कर पाऊंगा, लेकिन यह बात सच है कि उनके भीतर इतनी सरलता थी, चाहे भोजन को लेकर हो या पहनावे को लेकर हो, कि वह कभी भी किसी आडंबर का हिस्सा नहीं बनते थे। सादा जीवन-उच्च विचार उनके व्यक्तित्व पर पूरी तरह चरितार्थ होता था। उनकी सोच बहुत ही स्पष्ट और पैनी थी। वह इसी बात पर केंद्रित थे कि मनुष्य को अपने चारों तरफ के पर्यावरण को हमेशा बेहतर बनाने की निरंतर कोशिश करनी चाहिए, क्योंकि यह जीवन के सवालों का
सबसे बड़ा उत्तर है और दुर्भाग्य से जिसकी हमने उपेक्षा की है।
सिर्फ पर्यावरण ही नहीं, देश के लिए जान न्योछावर करने वाले के प्रति उनकी कैसी भावना थी, इसका एक उदाहरण मेरे पास है। एक दिन जब मैं उनसे मिलने गया, तो पता चला कि वह उपवास पर हैं। मैंने उनसे पूछा कि आज आपने उपवास क्यों रखा है, तो उन्होंने कहा कि आज शहीद दिवस है। मैं हैरान रह गया कि जिस शहीद दिवस की किसी को याद नहीं रहती, सुंदरलाल बहुगुणा उस दिन उपवास पर रहकर अपने वतन पर जान न्योछावर करने वालों को श्रद्धांजलि देते थे। मुझे नहीं लगता कि गांधी के बाद इतना ज्यादा उपवास रखने वाला और इतनी प्रतिबद्धता वाला कोई दूसरा व्यक्ति इस देश में था।
सुंदरलाल बहुगुणा का जन्म नौ जनवरी, 1927 को टिहरी जिले में भागीरथी नदी किनारे बसे मरोड़ा गांव में हुआ। 13 साल की उम्र में अमर शहीद श्रीदेव सुमन के संपर्क में आने के बाद उनके जीवन की दिशा बदल गई। सुमन से प्रेरित होकर वह बाल्यावस्था में ही आजादी के आंदोलन में कूद गए थे। वह अपने जीवन में हमेशा संघर्ष करते रहे और जूझते रहे। चाहे पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदलन हो, चाहे टिहरी बांध का आंदोलन हो, चाहे शराबबंदी का आंदोलन हो, उन्होंने हमेशा अपने को आगे रखा। नदियों, वनों व प्रकृति से प्रेम करने वाले बहुगुणा उत्तराखंड में बिजली की जरूरत पूरी करने के लिए छोटी-छोटी परियोजनाओं के पक्षधर थे। इसीलिए वह टिहरी बांध जैसी बड़ी परियोजनाओं के पक्षधर नहीं थे। जब भी उनसे बातें होती थीं, तो विषय कोई भी हो, अंततः बात हमेशा प्रकृति और पर्यावरण की तरफ मुड़ जाती थी। उनके दिलोदिमाग और रोम-रोम में प्रकृति के प्रति सम्मान और संरक्षण की भावना थी। उन्होंने अपने कार्यों से अनगिनत लोगों को प्रेरित किया और मैंने तो उनसे काफी कुछ सीखा।